छंद की गति, यति न तुक मात्रा का हल
चौपाई कही नहीं, न जाना सवैया फल
रस वीर क्या, कहाँ श्रृंगार रस पता करूँ
निर्गुण रहा कहीं , सगुण कैसे जान लूँ
रुबाइयाँ या छंदों की मैं हाल न जानूं
पता नहीं कहाँ पूर्ण, कभी अल्प विराम दूँ
तत्सम को ही कभी, समझा मैंने तद्भव
विदेशज को ही, शब्द देशज समझ लिया
दोहा कबीर न रहीम की पढ़ी
सिर्फ वो ही गढ़ा जो माँ ने गुनगुना दिया
शब्दों को जब जोड़ा मित्रों ने वाक्य समझ लिया
बचपन लगा मित्रों को, जब अनुच्छेद को देखा
भूमिका में अपना लगा उपसंहार एक सा
बदल गया था सिर्फ शीर्षक में उपनाम
अब हाल है ये कि मैं…… , की मेरे मित्र ही श्रोता